Sunday, August 21, 2011

स्वस्थ जीवन की बुनियाद स्तनपान

- राकेश कुमार मालवीय

स्तनपान और टीकाकरण नीरस विषय हैं। समाज के लिए भी और मीडिया के लिए भी। आम लोगों की बातचीत में भी यह मुद्दे कभी-कभार ही शामिल हो पाते हैं। लेकिन मध्यप्रदेश  में बच्चों के स्वास्थ्य के हिला देने वाले आंकड़ों पर गौर करें तो इन दोनों ही महत्वपूर्ण पक्षों पर गंभीरता से काम करने की जरूरत दिखाई देती है, सरकार के स्तर पर भी और समाज के स्तर पर भी। स्तनपान मध्यप्रदेश के साठ प्रतिशत  कुपोषित बच्चों की तंदुरूस्ती में बुनियादी रूप से महती भूमिका अदा कर सकता है, लेकिन यह उतना ही चिंताजनक है कि प्रदेश  में 15  बच्चों को ही जन्म के एक घंटे में यह नसीब होता है, और केवल फीसदी 31 प्रतिशत  बच्चे ही छह माह तक केवल मां का दूध ले पाते हैं। टीकाकरण के बारे में भी कमोबेष ऐसी ही स्थिति है। मध्यप्रदेश में टीकाकरण तमाम कोशीशो  के बावजूद 42 प्रतिशत  तक ही पहुंच पाया है। प्रदेश  में 28 प्रतिशत  अभिभावकों को टीके की जरूरत ही महसूस नहीं होती। यूनिसेफ की रिपोर्ट कहती है कि देश  में हर दिन 5 हजार बच्चों की मौत हो जाती है, और इनमें से 65 प्रतिशत  मौतें ऐसी हैं जिन्हें रोका जा सकता है। यानी टीकाकरण बाल और शिशु मृत्यु दर को कम करने में प्रभावी साबित हो सकता है, लेकिन जिस समाज के 28 प्रतिशत लोगों को इसकी जरूरत ही महसूस नहीं होती और 26 प्रतिशत  लोग इसके बारे में जानते ही नहीं हैं, वहां बच्चों की मौतें रोक पाना निश्चित ही एक बड़ी चुनौती है।  


राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण की तीसरी रपट के मुताबिक शहरी क्षेत्रों में लगभग पांच प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग चार प्रतिशत बच्चे स्तनपान से वंचित हैं। जनजागरूकता की जब बात आती है तो अक्सर  इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों को दोषी करार दे दिया जाता है। दरअसल ऐसा है नहीं। प्रसव के आधा घंटे के दौरान स्तनपान के आंकड़े को देखें तो जहां तीस प्रतिषत बच्चों को शहरी क्षेत्र में मां का दूध मिला था वहीं ग्रामीण क्षेत्र में यह शहरी क्षेत्र की तुलना में केवल आठ प्रतिशत ही कम था। यह बहुत बड़ा अंतर नहीं है। विषेषज्ञों के मुताबिक प्रसव के एक घंटे के बाद का समय बच्चे के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है और इस दौरान का स्तनपान एक शिशु के पूरे जीवन के लिए स्वास्थ्य के नजरिए से एक मजबूत बुनियाद रखता है। मध्यप्रदेश की स्थिति तो इस मामले में और भी खराब है।

सिक्के का एक पहलू यह भी है कि मध्यप्रदेश में सुरक्षित मातृत्व की कोशिशों के तहत संस्थागत प्रसव को बढ़ाकर लगभग 82 प्रतिशत  तक लाया गया है। सरकार के इन आंकड़ों पर भरोसा करें तो यह एक आमूलचूल परिवर्तन कहा जा सकता है। लेकिन संस्थागत प्रसव का दूसरा पक्ष यह भी है कि संस्थागत प्रसव के साथ ही सीजेरियन डिलीवरी में भी बड़ा इजाफा हुआ है। इस तरह के प्रसव में जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान की संभावना नहीं होती। इस स्थिति में स्तनपान के आंकड़ों को बढ़ाना कैसे संभव है, यह भी एक चुनौती है। 

स्तनपान असल में केवल आहार का विषय ही नहीं है, बल्कि इससे कहीं आगे जाकर मातृत्व, बच्चों की परवरिष और सामाजिक चेतना से जुड़ा मसला भी है। लेकिन इस पूरे परिदृष्य में एक बात तो साफ नजर आती है कि स्तनपान और इससे जु़ड़ी प्रक्रियाओं, सामाजिक सोच, विचार और भ्रांतियों को अपने-अपने स्तर पर दूर करना होगा। लेकिन स्वास्थ्य के नजरिए से यह सवाल इतना आसान भी नहीं लगता। मध्यप्रदेष की मीमा में रहने वाली 56 प्रतिशत माएं खून की कमी का शिकार हैं, यानी किसी न किसी तरह से बच्चे को उचित मात्रा में दूध पिलाने में वे शारीरिक रूप से पूरी तरह सक्षम नहीं है। तब क्या यह तस्वीर एक व्यापक रणनीति के बिना बदलने वाली है।   

हमारी प्रवृत्ति हर चीज के लिए जिम्मेदार समूहों पर दोष मथ देने की होती है, लेकिन सामाजिक चेतना के बिना इन तस्वीरों को बदलना बेहद मुश्किल  भरा है। सुरक्षित मातृत्व के मामले में भी समाज का रवैया ठीक ऐसा ही है। तमाम कोशिशों के बावजूद प्रसव प्रक्रियाओं को सुरक्षा के दायरे में लाने की कोशिशें  हुईं, कुछ प्रगति भी कर ली, लेकिन व्यावहारिक रूप से उन परिस्थितियों को नहीं समझा गया जो कि असल में सुरक्षा के नजरिए से बेहद जरूरी है। जन्म के तुरंत बाद शिशु  को गुड़ और शहद चटाने के रिवाजों से अब तक मुक्ति नहीं मिल पाई है। वहीं प्रसव के बाद दो-तीन दिन तक महिलाओं को उचित आहार ने देने जैसे बेतुके  रिवाज अब भी कायम है। अब सवाल यह उठता है कि संस्थागत प्रसव करवा भी दिया, लेकिन उनके दूसरे आयामों को समझे बिना निर्णायक परिणामों की अपेक्षा भी बेमानी है। 

टीकाकरण पर भी लोगों की राय दिलचस्प नजर आती है। कवरेज इवेल्यूषन सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक जहां 28 प्रतिषत लोगों को इसकी जरूरत ही नहीं लगती और दूसरी ओर 26 फीसदी को जानकारी ही नहीं है। दस प्रतिषत को इस बात की जानकारी नहीं है कि टीकाकरण के लिए जाना कहां है। आठ प्रतिशत  लोगों को समय उचित नहीं लगता, और लगभग इतने ही टीके के साइड इफेक्ट से डरकर नहीं लगवाते हैं। 6 प्रतिशत लोगों के पास समय नहीं है और 1 प्रतिषत लोग रूपयों की कमी से ऐसा नहीं कर पाते। टीके बीमारियों की रोकथाम में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इसके लिए दोनों स्तर पर काम करने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि वह दूरस्थ अंचल तक टीकाकरण की सुविधाएं सुरक्षित रूप से पहुंचाए और उन 26 प्रतिशत लोगों तक भी इसका महत्व बताए जिन्हें इस बेहद महत्वपूर्ण विषय की जानकारी ही नहीं है। वहीं समाज को भी अपनी ओर से बच्चों के स्वास्थ्य के बेहतर स्वास्थ्य के लिए आगे आना  

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